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अलिफ लैला की प्रेम कहानी-53

अब वह माँ के पास कर बोला, तुम ठीक कहती थीं। वे सभी बड़े दुष्ट और नीच हैं। मैं अब किसी व्यक्ति को मित्र नहीं बनाऊँगा। उस ने अपने बचे हुए धन को सँभाला, कुछ मुल्यवान गृह सामग्री बेच कर कुछ रुपया इकट्ठा किया और छोटा-मोटा व्यापार शुरू किया। शाम को वह नदी के पुल पर चला जाता और एक परदेशी को घर ले आता, उसे स्वादिष्ट भोजन कराता और आधी रात तक उस से बातें करता। फिर सुबह उसे विदा करके कहता कि अब तुम कभी मेरे घर आना।

 

उस की यह हरकत इसलिए थी कि उसे अकेले भोजन करने की आदत नहीं थी। इसलिए खाने पर किसी को साथ रखता। मैत्री वह करना भी नहीं चाहता था। उस के मेहमानों में से अगर उसे संयोगवश कोई व्यक्ति बाद में किसी स्थान पर मिल जाता था तो वह उस की ओर से मुँह फेर लेता था और अगर वह अबुल हसन से कुछ बात करना चाहता था तो यह ऐसा बन जाता जैसे उसे पहले कभी देखा ही नहीं हो।

 

एक दिन अपनी दैनिक चर्या के अनुसार अबुल हुसन पुल पर किसी अकेले परदेशी की प्रतीक्षा में बैठा था। इसी समय खलीफा हारूँ रशीद केवल एक दास को ले कर उधर से निकला। खलीफा का नियम था कि वह कभी-कभी वेश बदल कर प्रजा का हाल देखने के लिए निकला करता था। इस समय भी उसे पहचानना संभव नहीं था। खलीफा के प्रशासन में मंत्रियों और अधिकारियों की कमी नहीं थी किंतु वह प्रजा की कठिनाइयाँ अपनी आँखों से देखना चाहता था।

 

इस समय खलीफा ने मोसिल के व्यापारी का रूप धरा था। और किसी आकस्मिक दुखदायी स्थिति से निपटने के लिए एक विशालकाय दास भी अपने साथ रखा था। अबुल हसन ने यही समझा कि वह मोसिल से आनेवाला कोई व्यापारी है। वह उस के समीप गया और सलाम करने के बाद उस से कहने लगा कि आप परदेशी हैं, मुझ पर इतनी कृपा कीजिए कि मेरी कुटिया पर चल कर रूखा-सूखा भोजन कीजिए और रात को वहीं शयन भी कीजिए।

 

खलीफा को आश्चर्य हुआ कि कोई ऐसा दानवीर हो सकता है जो खुद जा कर परदेशियों को अपने घर कर भोजन और शयन को कहे। अबुल हसन का चेहरा-मोहरा और बातचीत का ढंग भद्रतापूर्ण था। खलीफा की इच्छा हुई कि उस के बारे में कुछ विस्तारपूर्वक जाने। इसलिए उस ने अबुल हसन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। अबुल हसन ने उसे एक सजे-सजाए कमरे में बिठाया, जहाँ झाड़-फानूस आदि लगे थे। फिर उस के सामने स्वच्छ और मूल्यवान पात्रों में भाँति-भाँति के स्वादिष्ट व्यंजन ला कर रखे। उस की माँ पा

 

कला में प्रवीण थी और अपने पुत्र की प्रसन्नता के विचार से खुद ही भोजन बनाती थी। उस ने तीन तरह के सालन परोसे। एक मुर्गे के मांस का, एक कबूतर के मांस का और एक भुने हुए मांस का। भोजन की मात्रा इतनी अधिक थी कि कई व्यक्ति उस से तृप्त हो सकते थे। अबुल हसन खलीफा के सामने बैठ कर उस के साथ भोजन करने लगा। खलीफा ने भोजन की बड़ी प्रशंसा की।

 

भोजनोपरांत खलीफा के दास ने जल पात्र ला कर दोनों के हाथ धुलाए। फिर अबुल हसन की माँ ने बादाम और अन्य मेवे भिजवाए। कुछ रात ढलने पर अबुल हसन शराब की सुराहियाँ और प्याले लाया और उधर माँ से कहा कि मेहमान के गुलाम को पेट भर भोजन करा दे। फिर उस ने एक प्याला भर कर खलीफा को दिया और खलीफा के पीने के बाद प्याले में बची शराब खुद पी गया। खलीफा ने भी इस के जवाब में ऐसा ही किया। खलीफा ने अबुल हसन का शिष्ट व्यवहार देख कर उस का नाम, परिवार आदि पूछा। उस ने कहा कि मेरी कथा विचित्र है। खलीफा ने उसे सुनाने पर जोर दिया।

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